शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

ऋषि कलाम: मेरे हीरो

'कलाम' शब्द की ऊर्जता से  मै अपनी चेतना के प्रारंभिक दिनों से ऊर्जित होता आया हूँ. यह शब्द मुझे गीता के श्लोक  और कुरआन की आयतों की तरह पवित्र और आह्लादकारी लगता है. मै कलाम साहब  लिए 'ऋषि' शब्द का प्रयोग करता हूँ. मुझे मार्गदर्शन देते हुए मेरे हीरो अव्यक्त रूप में हमेशा मेरे पास रहते है. मै इन पर ज्यादा कुछ लिख नहीं पाऊंगा. लेखन से परे का शब्द है 'कलाम'. मै इस समय गुड खाने वाले गूंगे के सरीखा हूँ जो मिठास बता नहीं पायेगा.  लेखनी अपने आप डोली है जिसे नीचे पिरो दिया है.

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आप मिसाइल मैन है या
एक मिसाल ,
जो हम जैसो के लिए बन गए है।
लेकिन,
आपकी सटीक परिभाषा दूंगा
एक मशाल के रूप में ।
आपने ता-उम्र जलकर
रोशनी दी है
सौ करोड़ से अधिक आत्माओं के लिए
आप बनगए है
अक्षय ऊर्जा स्रोत।
आपकी रहस्यमयी मुसकान
मुझे चुनौती देती है
और प्रेरित करती है
'दिया' बन जाने को
हताशा के अँधेरे में ,
और
भय की ठिठुरन में
'अग्नि' बन जाने को।
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सोमवार, 29 नवंबर 2010

तुम्ही से रूठना तुमको मनाना अच्छा लगता है













अकेले में तुम्हारी याद आना
अच्छा लगता है,
तुम्ही से रूठना तुमको मनाना
अच्छा लगता है।

धुन्धलकी शाम जब मुंडेर से
पर्दा गिराती है,
सुहानी रात अपनी लट बिखेरे,
पास आती है,
तुम्हारा चाँद सा यूँ छत पे आना,
अच्छा लगता है।

फिजाओं में घुली रेशम नशीला
हो रहा मौसम,
ओढ़कर फूल का चादर सिमटती
जा रही शबनम,
हौले से तुम्हारा गुनगुनाना
अच्छा लगता है।

अकेली बाग़ में बुलबुल बिलखती है
सुलगती है,
रूमानी चांदनी मुझपर घटा बनकर
पिघलती है,
तुम्हारा पास आना मुसकराना
अच्छा लगता है

अकेले में तुम्हारी याद आना
अच्छा लगता है।

बुधवार, 9 जून 2010

प्री-टेक्निक युग की खुदाई


नीम का पेड़
छोटे -छोटे शालिग्राम
कुए का ठंडा पानी
और  पीपल की नरम छांह
सुबह का कलेवा
'अग्गा राजा दुग्गा दरोगा'
गन्ने का रस और दही
साथ में आलू की सलोनी
गेरू और चूने से
लिपे पुते   घर में
आँगन और तुलसी
दरवाजे की देहरी
ताख में रखा दिया
उजास का पहरिया
बाबा की झोपड़ी
और मानस की पोथी
लौकी की बेले
छप्पर पर आँखमिचौनी खेले
आमो का झूरना
महुए  का बीनना
अधपके गेहू की  बाली का चूसना
बगल के बांसों की
बजती बांसुरी
खेत खलिहान में काम करते
बैल हमारे परिवार के
और पास में चरते गोरू बछेरू  घर के
प्री-टेक्निक युग की खुदाई में
मिली ये सारी वस्तुए
जिनको मैंने खोया था
कई बरस पहले
कई बरस पहले...............

सोमवार, 7 जून 2010

मेरी धरती



                                  
                                
  तुम जलती हो ,
 जो धूप मै देता हूँ.
तुम भीगती हो,
जो पानी मै उडेलता हूँ.
तुम कांपती हो,
जो शीत मै फैलता हूँ.
सबकुछ समेटती हो,
जो मै बिखेरता हूँ.
तुम सहती हो
बिना किसी शिकायत के


मेरी धरती,
तुम रचती हो,
सृष्टि  गढ़ती हो
और मै तुम्हारा आकाश
तुम्हे बाहों में भरे हुए
चकित सा देखता  रहता हूँ
तुम हसती हो
निश्छल  हसती जाती हो
हवाए महक जाती है
रुका समय चल पड़ता है
और ज़िन्दगी नए पड़ाव
तय करती है.

रविवार, 6 जून 2010

दोगलापन

दर्शन और व्यवहार का दोगलापन ही वह सहज चीज़ है जो इस जमाने को हर गुजरे जमाने से अलग करता है. हो सकता है किसी जमाने में आदमी ज्यादा बर्बर हिंसक या आक्रामक रहा हो लेकिन यह तय है की उस पशुत्व में भी कम से कम धोखाधड़ी न थी. हो सकता है की चंगेज़ो या नादिरशाहो ने नरमुंडो के ढेर लगाए हो पर यह तय है उन्होंने मानवतावाद सह अस्तित्व प्रजातंत्र या समाजवाद के नारे नहीं ही लगाए थे. साम्प्रदायिकता प्रबल रही होगी लेकिन निश्चित ही धर्मनिरपेक्षता की ओट में नहीं रही होगी. गौर से देखा जाय कि बीसवी शताब्दी और खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध  के बाद की दुनिया छद्मवाद की दुनिया है. मानवता और प्रजातंत्र का रक्षक बेहिचक परमाणु बम  का प्रयोग करता है  जनसमर्थन से क्रान्तिया   करने वाले जनसंहार में तिल भर संकोच नहीं कर रहे है. प्रजातान्त्रिक व्यवस्थाये नंगी ताकत के सहारे चल रही हैं. धर्मध्वजा लहराते हुए विजय अभियान पर निकले गिरोह अपने वास्तविक उद्देश्यों में धर्मनिरपेक्ष नहीं तो गैर धार्मिक तो है ही और उनसे कही कमतर नहीं वो धर्मनिरपेक्ष जो बिना साम्प्रदायिक टुकडो में बांटे सच्चाई को देख ही नहीं सकते. पर्यावरण को नष्ट करने वाली नयी से नयी तकनीक का प्रयोग करने वाले ही यह हैसियत  रखते है वो  पर्यावरण संरक्षण के लिए बड़े से बड़ा एन.जी.ओ. चलाये.
सो भैया देखो राज तो है दोगलो का ढोल में पोल,घुस सके तो घुस जा और न घुस पाए  तो ढोल की तरह पिट. दोनों ही सूरत में कल्याण नहीं है. आवश्यकता है सहज ढंग से चलने  वाली व्यवस्था का जिसमे शिखंडी तत्व कि मौजूदगी न हो.
क्रमश.........