रविवार, 3 जुलाई 2016

डॉ पवन विजय के मुक्तक।





मन पर कितने घाव लगे हैं तुम्ही कहो मैं किसे दिखाऊं।
शब्दों पर भी दांव लगे  हैं तुम्ही  कहो मैं  किसे बताऊँ ।
पीड़ा का   चरणामृत   पीते  कथा  बांच  दी जीवन की
व्यथा कंठ पर पांव रखे है तुम्ही कहो मैं  किसे  सुनाऊँ।



बादल बिजली धरती अम्बर गीला कर बरसातें भींगी,
आपस में कुछ व्यथा कथा कह के दो जोड़ी आँखें भींगी। 
एक ज़माना बीत गया जब चाँद लिपट कर रोया था,
तब से कितने दिन भीगे और जाने कितनी रातें भींगी।



सुमिरन  छूटा   माला  रूठी मनके टूटे जापों में।
आशीषों ने मुँह फेरा तो ठौर मिला अभिशापों में।
गंगा में कर दिया प्रवाहित पुन्यों की बोझिल गठरी,
लो! मैं साझीदार  हुआ   हूँ आज तुम्हारे पापों में।




धूप खिली लाज की सांवरी अब क्या करे।
गंध हुयी अनावृत्त पांखुरी अब क्या करे।
सांकले खुलीं हैं आज सारी वर्जनाओं की,
अधर कांपते  रहे  बांसुरी  अब  क्या करे।


हवाएं मुझसे होकर तुम तलक तो जा रही होंगी
तुम्हारे द्वार पर सावन को फिर बरसा रहीं होंगी।
उन्हें छूकर समझ लेना हृदय की अनकही बातें,
कभी जो कह नहीं पाया वही बतला रही होंगी।

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