शुक्रवार, 31 मार्च 2017

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता अभियान : विभिन्न दृष्टियों ,रूपों पद्धतियों का आकलन और समन्वय: गिरीश कुमार त्रिपाठी

सामान्यत : " इतिहास " शब्द से राजनीतिक व सांस्कृतिक  इतिहास का ही बोध होता है ,किन्तु वास्तविकता यह है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका इतिहास से सम्बन्ध न हो । अत : साहित्य भी इतिहास से असम्बद्ध नहीं है ।साहित्य के इतिहास में हम प्राकृतिक  घटनाओं व मानवीय क्रिया -कलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि  करतें हैं ।यद्यपि इतिहास के अन्य क्षेत्रों की तुलना में साहित्य का इतिहास-दर्शन एवं उसकी पद्धति भी अब भी बहुत पिछड़ी हुई है ,किन्तु फिर भी समय -समय पर इस प्रकार के अनेक प्रयास हुए हैं जिनका लक्ष्य साहित्येतिहास को भी सामन्य इतिहास के स्तर पर पहुचाने का रहा है । 
हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की परम्परा का आरम्भ उन्नीसवीं सदी से माना जाता है ।यद्यपि उन्नीसवीं सदी से पूर्व विभिन्न कवियों और लेखकों द्वारा अनेक ऐसे ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी जिनमें हिन्दी के विभिन्न कवियों के जीवन- वृत्त एवं कृतियों का परिचय दिया गया है ,जैसे -चौरासी वैश्वन की वार्ता .दो सौ बावन वैश्वन की वार्ता ,भक्त माल ,कवि माला ,आदि -आदि किन्तु ,इनमें काल -क्रम ,सन -संवत आदि का अभाव होने के कारण इन्हें इतिहास की संज्ञा नहीं दी जा सकती । वस्तुत :अब तक की जानकारी के अनुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास -लेखन का सबसे पहला प्रयास एक फ्रेच विद्वान गासां द तासी का ही समझा जाता है जिन्होनें अपनें ग्रन्थ में हिन्दी और उर्दू के अनेक कवियों का विवरण वर्ण -क्रमानुसार दिया है।इसका प्रथम भाग 1839 ई o में तथा द्वितीय 1847 ई o में प्रकाशित हुआ था। 1871 ई o में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ ,जिसमें इस ग्रन्थ को तीन खण्डों में विभक्त करते हुए पर्याप्त संशोधन -परिवर्तन किया गया है । इस ग्रन्थ का महत्त्व केवल इसी द्रष्टि से है कि इसमें सर्व प्रथम हिन्दी -काब्य का इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है तथा कवियों के रचना काल का भी निर्देश दिया गया है ।अन्यथा कवियों को काल -क्रम के स्थान पर अंग्रेजी वर्णक्रम से प्रस्तुत करना ,काल -विभाजन-एवं युगीन प्रवृत्तियों के विवेचन का कोई प्रयास न करना ,हिन्दी के कवियों में इतर भाषाओं के कवियों को घुला -मिला देना आदि ऐसी त्रुटियाँ हैं जिनके कारण इसे "इतिहास "मानने में संकोच होता है ।फिर भी ,उनके ग्रन्थ में अनेक त्रुटियों व न्यूनताओं के होते हुए भी हम उन्हें हिन्दी -साहित्येतिहास -लेखन की परम्परा में ,उसके प्रवर्तक के रूप में ,गौरव पूर्ण स्थान देना उचित समझते हैं ।
तासी की परम्परा को आगे बढ़ाने का श्रेय शिवसिंह सेंगर को है ,जिन्होंनें "शिव सिंह सरोज "(1883)में लगभग एक सहस्त्र भाषा-कवियों का जीवन -चरित्र उनकी कविताओं के उदाहरण सहित प्रस्तुत करनें का प्रयास किया है ।कवियों के जन्म काल ,रचना काल आदि के संकेत भी दिये गये हैं ,यह दूसरी बात है कि वे बहुत विश्वशनीय नहीं हैं ।इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ का भी महत्त्व अधिक नहीं हैं ,किन्तु फिर भी इसमें उस समय तक उपलब्ध हिन्दी -कविता सम्बन्धी ज्ञान को संकलित कर दिया गया है ,जिससे परवर्ती इतिहासकार लाभ उठा सकते हैं -इसी दृष्टि  से इसका महत्त्व है ।
सन 1888 में ऐशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल की पत्रिका के विशेषांक के रूप में जार्ज ग्रियर्सन द्वारा रचित ' द मॉडर्न  वर्नाकुलर ऑफ़ हिंदुस्तान ' का प्रकाशन हुआ ,जो नाम से इतिहास न होते हुए भी सच्चे अर्थों में हिन्दी -साहित्य का पहला इतिहास कहा जा सकता है ।इस ग्रन्थ के अन्तर्गत ग्रियर्सन नें हिन्दी -साहित्य का भाषा की द्रष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए स्पष्ट किया है कि इसमें न तो संस्कृत -प्राक्रत को शामिल किया जा सकता है और न ही अरबी -फारसी -मिश्रित उर्दू को ।ग्रन्थ को काल खण्डों में विभक्त किया गया है तथा प्रत्येक अध्याय काल विशेष का सूचक है।प्रत्येक काल के गौड़ कवियों का अध्याय विशेष के अंन्त में उल्लेख किया गया है।विभिन्न युगों की काब्य प्रवृत्तियों की व्याख्या करते हुए उनसे सम्बधित सांस्कृतिक परिस्थतियों और प्रेरणा -स्रोतों के भी उद्दघाटन का प्रयास उनके द्वारा हुआ है ।

मिश्र बन्धुओं द्वारा रचित 'मिश्र बन्धु 'चार भागों में विभक्त है ,जिसके प्रथम तीन भाग 1913 ई o में प्रकाशित हुआ।इसे (ग्रन्थ को )परिपूर्ण एवं सुव्यवस्थित बनाने के लिए उन्होंनें इसमें लगभग पाँच हजार कवियों को स्थान दिया है तथा ग्रन्थ को आठ से भी अधिक काल खण्डों में विभक्त किया है ।इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें कवियों के विवरणों के साथ -साथ साहित्य के विविध अंगों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है तथा अनेक अज्ञात कवियों को प्रकाश में लाते हुए उनके साहित्यिक महत्त्व को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।आधुनिक समीक्षा- द्रष्टि से यह ग्रन्थ भले ही बहुत सन्तोष जनक न हो ,किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इतिहास लेखन की परम्परा को आगे बढ़ाने में इसका महत्त्व पूर्ण योगदान है | 
हिन्दी साहित्येतिहास की परम्परा में सर्वोच्च स्थान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास '(1929)को प्राप्त है ,जो मूलत :नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'हिन्दी शब्द सागर 'की भूमिका के रूप में लिखा गया था तथा जिसे आगे परिवर्धित एवं विस्तृत करके स्वतन्त्र पुस्तक का रूप दिया गया\ इस ग्रन्थ में आचार्य शुक्ल नें साहित्येतिहास के प्रति एक निश्चित व सुस्पष्ट द्रष्टिकोण का परिचय देते हुये युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में साहित्य के विकास क्रम के व्यवस्था करनें का प्रयास किया इस द्रष्टि से कहा जा सकता है कि उन्होंनें साहित्येतिहास को विकासवाद और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का परिचय दिया।साथ ही उन्होंनें इतिहास के मूल विषय को आरम्भ करनें से पूर्व ही काल -विभाग के अन्तर्गत हिन्दी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार  सुस्पष्ट काल -खण्डों में विभक्त करके अपनी योजना को एक ऐसे निश्चित रूप में प्रस्तुत कर दिया कि जिसमें पाठक के मन में शँका और सन्देह के लिये कोई स्थान नही रह जाता । यह दूसरी बात है कि नवोपलब्ध तथ्यों और निष्कर्षों के अनुसार अब यह काल विभाजन त्रुटि पूर्ण सिद्ध हो गया है ,किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अपनी अति सरलता व स्पष्टता के कारण यह आज भी बहुप्रचलित और बहुमान्य है । इस प्रकार, हम देखते हैं कि हिन्दी -साहित्य -लेखन की परम्परा में आचार्य शुक्ल का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनका इतिहास ही कदाचित अपने विषय का पहला ग्रन्थ है जिसमें अत्यन्त सूक्ष्म एवम व्यापक द्रष्टि ,विकसित द्रष्टिकोण ,स्पष्ट विवेचन -विश्लेषण  प्रामाणिक निष्कर्षों का सन्निवेश मिलता है। इतिहास लेखन की परम्परा में आचार्य शुक्ल का महत्व सदा अक्षुण रहेगा ,इसमें कोई सन्देह नहीं।
आचार्य शुक्ल के इतिहास -लेखन के लगभग एक दशाब्दी के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस क्षेत्र में अवतरित हुए। उनकी 'हिन्दीसाहित्य की भूमिका ' क्रम और पद्धति की दृष्टि  इतिहास के रूप में प्रस्तुत नहीं है ,किन्तु उसमें प्रस्तुत विभिन्न स्वतन्त्र लेखों में कुछ ऐसे तथ्यों और निष्कर्षों का प्रतिपादन किया गया है जो हिन्दी -साहित्य के इतिहास -लेखन के लिये नयी द्रष्टि ,नयी सामग्री और नयी व्याख्या प्रदान करते हैं\ जहाँ आचार्य शुक्ल की ऐतिहासिक दृष्टि  की परिस्थितियों को प्रमुखता प्रदान करती है ,वहाँ आचार्य द्विवेदी नें परम्परा का महत्व प्रतिष्ठित करते हुए उन धारणाओं को खण्डित किया जो युगीन प्रभाव के एकांगी द्रष्टिकोण पर आधारित थीं ।'हिन्दी साहित्य की भूमिका के अनन्तर आचार्य द्विवेदी की इतिहास -सम्बन्धी कुछ और रचनायें भी प्रकाशित हुई। हिन्दी साहित्य उद्दभव और विकास ,हिन्दी साहित्य का आदि काल आदि। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास की -विशेषत : मध्य कालीन काब्य के स्रोतों व पूर्व -परम्पराओं के अनुसन्धान तथा उनकी अधिक सहानुभूतिपूर्ण व यथा तथ्य व्याख्या करने की द्रष्टि से आचार्य द्विवेदी का योगदान अप्रतिम है।
आचार्य द्विवेदी के ही साथ -साथ इस क्षेत्र में अवतरित होने वाले एक अन्य विद्वान डा o राम कुमार वर्मा हैं ,जिनका 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ' सन 1938 में प्रकाशित हुआ था।इसमें 693 ई o से 1693 ई o तक की कालाविधि को ही लिया गया है।सम्पूर्ण ग्रन्थ को सात प्रकरणों में विभक्त करते हुए सामान्यत : आचार्य शुक्ल के ही वर्गीकरण का अनुसरण किया गया है।डा वर्मा ने स्वयम्भू को ,जो कि अपभ्रंश के सबसे पहले कवि हैं ,हिन्दी का प्रथम कवि माना है और यही कारण है कि उन्होंने हिन्दी -साहित्य का आरम्भ 693 ई o से स्वीकार किया है ।ऐतिहासिक व्याख्या की द्रष्टि से यह इतिहास आचार्य शुक्ल के गुण -दोषों का ही विस्तार है ,कवियों के मूल्याँकन में अवश्य लेखक नें अधिक सह्रदयता और कलात्मकता का परिचय दिया है ।अनेक कवियों के काव्य-सौन्दर्य का आख्यान करते समय लेखक की लेखनी काव्यमय हो उठी है ,जो कि डा o वर्मा के कवि -पक्ष का संकेत देती है।शैली की इसी सरसता व प्रवाहपूर्णता के कारण उनका इतिहास पर्याप्त लोकप्रिय हुआ है।

विभिन्न विद्वानों के सामूहिक सहयोग के आधार पर लिखित इतिहास -ग्रन्थों में 'हिन्दी -साहित्य 'भी उल्लेखनीय है ,जिसका सम्पादन डा o धीरेन्द्र वर्मा ने किया है।इसमें सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य को तीन कालों -आदि काल ,मध्य काल ,एवं आधुनिक काल -में विभक्त करते हुए प्रत्येक काल की काब्य -परम्पराओं का विवरण अविछिन्न रूप से प्रस्तुत किया गया है। कुछ दोषों के कारण इस ग्रन्थ की एक रूपता ,अन्विति एव संश्लेषण का अभाव परिलक्षित होता है ,फिर भी ,हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परम्परा में इसका विशिष्ट स्थान है।
उपर्युक्त इतिहास -ग्रंथों के अतिरिक्त भी अनेक -शोध प्रबन्ध और समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखे गए हैं जो हिन्दी साहित्य के सम्पूर्ण इतिहास को तो नहीं ,किन्तु उसके किसी एक पक्ष ,अंग या काल को नूतन ऐतिहासिक द्रष्टि और नयी वस्तु प्रदान करते हैं ।ऐसे शोध- प्रबन्ध या ग्रन्थ हैं -डा o भगीरथ मिश्र का हिन्दी काव्य शास्त्र का इतिहास ,डा o नगेन्द्र की रीतिकाव्य की भूमिका ,श्री विश्व नाथ प्रसाद मिश्र का हिन्दी साहित्य का अतीत ,डा o टीकम सिंह का हिन्दी वीर काव्य ,डा o लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय का आधुनिक काल सम्बन्धी शोध प्रबन्ध आदि ऐसे शताधिक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं जिनके द्वारा हिन्दी साहित्य के विभिन्न काल खण्डों ,काव्य रूपों ,काव्य धाराओं ,उपभाषाओं के साहित्य आदि पर प्रकाश पड़ता है ।अत :आवश्यकता इस बात की है कि इन शोध -प्रबन्धों में उपलब्ध नूतन निष्कर्षों के आधार पर अद्यतन सामग्री का उपयोग करते हुए नए सिरे से हिन्दी -साहित्य का इतिहास लिखा जाये । ऐसा करने के लिए आचार्य शुक्ल द्वारा स्थापित ढाँचे में आमूल -चूल परिवर्तन करना पड़ेगा क्योंकि वह उस सामग्री पर आधारित है जो आज से पैसठ सत्तर वर्ष पूर्व उपलब्ध थी ,जबकि इस बीच बहुत सी नयी सामग्री प्रकाश में आ गयी है ।
इस प्रकार गासां द तासी से लेकर अब तक की परम्परा के संक्षिप्त सर्वक्षण से यह भली भांति स्पष्ट हो जाता है कि लगभग एक शताब्दी तक की ही अवधि में हिन्दी -साहित्य का इतिहास लेखन ,अनेक दृष्टियों ,रूपों और पद्धतियों का आकलन और समन्वय करता हुआ संतोषजनक प्रगति कर पाया है। इतना ही नहीं कि हमारे लेखकों नें विश्व -इतिहास -दर्शन के बहुमान्य सिद्धान्तों और प्रयोगों को अंगीकृत किया है ,अपितु उन्होंने ऐसे नए सिद्धान्त भी प्रस्तुत किये हैं जिनका सम्यक मूल्याँकन होने पर अन्य भाषाओं के इतिहासकार भी उनका अनुसरण कर सकते हैं ।